Saturday, February 28, 2015


खुमानी का बोट 

इक्कआ दुक्का खुमानी के पेड़ 
दो चार अखरोट के दरख़्त 
कुछ मवेशी-
गई, भैंस, बछिया, थोरी 
कुछ बिल्लियाँ 
भकार के किनारे घूमतीं 
कुछ डूम 
कुछ बामन 
कुछ खशी 
छूट गए हैं तुमसे 

ऐपण से लिपि 
देयी कच्ची मिटटी की नम है 
लकड़ी के दरवाज़ों पर गुदे  हैं 
तुम्हारे बचपन 
तुम्हारी जवानियाँ 

पन्यारा कल कलाता है 
गाता है शकुन आखर 
तुम्हारे आगमन के 
हरथान पर दिए टिमटिमाते हैं 
तुम्हारी आस में 
और चिपचिपी घंटियाँ 
चीड़ के पेड़ों के साथ गुनगुनाती हैं 

खुमानी का बोट 
शिशुन का पौंधा 
शिमगाड के  पुराने 
पत्थर 
याद करते हैं तुम्हें। 

-विजया 

भकार- अनाज रखने की लकड़ी की बड़ी अलमारियां 
थोड़ी- भैंस का बच्चा 
खशी -  ' ठाकुरों' के लिए इस्तेमाल  किया जाने वाला  लव्ज 
डूम - हरिजन 
ऐपण- कुमाऊं में बनायीं जाने वाली रंगोली 
शकुन आखर - शुभ अवसरों पर गए जाने वाली गीत 
पन्यारा- झरना 
शिशुन - एक तरह का कांटेदार पौंधा 
शिमगाड- एक पथरीली जगह का नाम 
हरथान -मंदिर 

Wednesday, September 4, 2013

Tuesday, August 20, 2013


नज़्म 

तेरी यादों से गीले हैं मेरी ख़्वाब
धुप का आना मुनासिब सा नहीं लगता|
यूँ ही लम्हा दर लम्हा
तेरी परछाइयों में है दिन गुज़रता ।
गाँठ तेरी-मेरी  खुल  गयी है
बंध जाए फिर इसका भरोसा नहीं लगता |
तू मेरी ज़िन्दगी की हसीन उम्र है
अब मुझे बूढा होने का जी नहीं करता ।
सर मेरा महसूस करता है
तेरी हाथों का आशियाँ
मुझे मकान ढूँढने का जी नहीं करता ।
तू तस्वीर में जा बैठा है मुझसे रुसवा हो
बेतस्वीर लोगों से बात करने का जी नहीं करता |
दूब सी पनपती है दिन-दिन तेरी खुशबू ज़हन में
मुझे किसी फूल को छूने का दिल नहीं करता |
कहता है ज़माना दूर है तू
मुझे उनकी मासूमियत पे रोने का जी नहीं करता ।

-विजया कांडपाल

Monday, August 19, 2013

तुम्हारे लिए
(गुलज़ार साब के जन्मदिन पर)

तुम्हारी बसंती कवितायेँ
और पतझड़  सी नज्में
चूमती हैं मेरी अकेली सुबह
और अकेली शामें

एक कप चाय पीते हैं रोज़ अकेलेपन में
डूबे डूबे से हम
और फिर शोर भरी सड़कों पर
धीमी कर लेते हैं आवाज़


सफ़ेद कलम होगी तुम्हारी शायद
और स्याही का रंग ढूंढ नहीं पायी मैं
अब तक
उस चश्मे के पार दो आँखें कितने मेगापिक्सेल
कैमरे से देखती हैं ?
दफन सांस लेते लोग और ठंडी सफ़ेद चादरों पर
पनपता प्रेम
बेनाम फूलों सी तुम्हारी कवितायेँ मेहेकती  हैं
मिट्टी  सी
तुम गा लेते हो उन सब दिलों को जो
दिल की मेज़ पर सजाये रहते हैं यादों के फ्रेम
पढ़ लेते हो उन्हें मीलों दूर बैठे
और उकेर देते हो उनकी कहानी
आसमान पर, पानी में, गीली हंसी में
गुलज़ार।

इस खोते -खॊते पल में मैं
तुम्हारे शब्दों को छू लेती हूँ
और छू  लेती हूँ ज़िन्दगी
तोहफे में सोचती हूँ
दे दूँ आज
चमकीले पत्तों की नमी
गीली आँखों के फुरसत से भरे पल
प्रेम की बेदमी
और कई सारे हाथ, आँखें
एहसास और दर्दों का पुलिंदा ।
मुझे यकीन है के तुम्हारी
दिल की डायरी मुस्करा जाएगी
और परदे के पीछे से कहेगी
'शाम से आँख में नमी सी है'

-विजया कांडपाल




Monday, May 20, 2013

मेरी कलम से


धानों की बालियाँ

चमकती धान की बालियाँ
जब बनेंगी हमारी दीवारें
और फूस बिछ जाएगी
हमारी संवेदनाओं को सँभालने के लिए
तब चाँद का पर्दा हटाकर
सूरज झांकेगा
पढने के लिए श्रृंगार ।


तुम्हारी संवेदनाएं उतर पड़ेंगी नसों में मेरी
और हम बन उठेंगे
जब तुम तरशोगे अपनी सी कोई
देह पर मेरी उँगलियों से अपनी
तब में गढ़ुंगी तुम में खुद को

निष्पाप से, निश्छल  मन लिए
अपनी पवित्र आत्माओं  में समाहित होते
एक दूसरे  में खुद को पिरोते
क्षण क्षण, सांस -सांस


मैं बुनुंगी तुम्हारे लिए होंठों से एक प्रेम का बिछोना
और तुम फूँक दोगे स्वरचित प्रेम राग
आत्मा में मेरी।


-Ⓒविजया

मेरी कलम से

काश के तुम आ जाओ

दिल कहता है कि काश तुम आ जाओ
इस कोरी रात में
मेरी तनहाइयों की उबासियाँ बांटने
बांटने कोरे गीत, कोरी थकान

दिल कहता है के तुम आ जाओ
जैसे प्रेम की पहली मुस्कान
आ जाओ बच्चे की पहली किलकारी से
बेमतलब, बेसबब
आ जाओ यूँ ही देखने के
कैसी लगती हूँ में अब ?
कैसे लेती हूँ तुम्हारा नाम ?
पता नहीं कितनी झुर्रियां
हमने बाँट ली हैं साथ?

काश के तुम आ जाओ
देखने के कितने फूल उग आये हैं
उस कच्चे रस्ते पर
जहाँ तुम आना पक्का कर गए थे |
आ जाओ देखने मेरा घर
जहाँ तुम्हारे नाम की कोई चीज़ नहीं
मेरे अलावा |
आओ देखने चमकती रोशनियाँ आँगन में मेरे
और अँधेरे बांटने आ जाओ भीतर नाचते

तुम्हारी पलक जो अब मेरे पसंदीदा रंग की हो गयी होगी
उनमें पढना चाहती हूँ अपनी यादों की नमियां
और वो कई साल जब तुमने मुझे पुकारा होगा

क्या चश्मा पहने हो तुम अब ?
शायद देख पो अब मुझे ठीक से
अब मुझे खाना पकाना अच्छा नहीं लगता
तुम सीख पाए कुछ पकाना ?
जब कभी टेलीफोन खराब हो जाता था
सोचती थी के तुम आ जाओगे।

तुम्हारे ख्याल जैसे गुनगुने पानी में
थक चुके पैर
और यादें है मासिक धर्म सी
अब आ भी जाओ
गुलाब चुन रखे हैं मैंने
पीले
तुम ले जाओ
अपनी हरी वर्दी की जेब पर लगाना
और ले जाओ वो चिट्ठियाँ भी
जो मैंने कई बार भेजीं
पर लौट आयीं |

-Ⓒविजया






मेरी कलम से

उनके लिए जो दर्द गाते हैं 




 (जगजीत जी की याद में )
जैसे इंतज़ार में सफ़ेद-सलेटी
परिंदे
 प्यार के दानों के
वैसे ही
 बिछ जाते थे लोग
कालीनों पर
महफ़िल में तुम्हारी


तुम्हारी उँगलियों से शुरू होती ग़ज़ल
जब आती थी होंठों तक
लोग सूफी हो जाते थे  
किसी सुदूर पहाड़ के नॉन कमर्शियल मंदिर सा एहसास
सा तुम्हारी महफिलों में
विजया 


जैसे रिसता है प्रेम धीरे-धीरे दिल में
और फिर दिल ही सोख लेता है उसे आहिस्ता आहिस्ता
वैसे ही सुरों को चूम लेती थीं तुम्हारी सुगन्धित धूप  सी आवाज़
चुटकी में हवा होती खुशियाँ नहीं
दर्द गाते तुम
सुरों और ग़ज़लों में पिरोया दर्द
कैसे सीता था ज़ख्म सुनने वालों के ?


तुम्हारे होंठों पर चढ़े सुर का स्वाद
हर जुबां लेती है
लोग बह जाते हैं
तुम्हारी ग़ज़लों की बे साहिल नदियों में
जैसे रात बहती है तनहा सी
शायद यही है मतलब संगीत का
तुम्हारा नाम
शायद तुम्हें ही ग़ज़ल कहते हैं
आज तुम जा चुके हो
पर यादों की गीली मिटटी में
तुम्हारी यादों के गुलाब
महकेंगे हमेशा|